Monday, June 12, 2017

ऐंठन

किस बात पे इतना गरजे हो

किस बात पे तुमको इतनी अकड़

अपने ही बने उस जाल में कल 

फंस कर के मरी है एक मकड़

किस बात की इतनी ऐंठन है

किस बात पे यूँ इतराते हो

ये ढहते पर्वत देखो तुम

क्या शाश्वत गीत सुनाते हो

मेंढक ही उफनते नालों के

सागर को चुनौती देते हैं

मुफ़लिस हैं मुकद्दर से लेकिन

महफ़िल को पनौती कहते हैं

फिर हश्र वही होता है सुनो

पैरों के तले मर जाते हैं

बरसात के नाले ही अक्सर

फुहारों से भर जाते हैं

दुर्योधन जैसे मंदबुद्धि

बांधने हरि को जाते हैं

अर्जुन पहले झुक जाता है

हरि खुद बंध कर आ जाते हैं

तो नाप लो अपनी गहराई

अपना उथलापन जानोगे

गैरों की कमी निकालोगे

तो पछताकर ही मानोगे

Saturday, June 10, 2017

हमने तुमने...

हमने तुमने आग बरसते शोलों की रखवाली की है.. 

हमने तुमने अपनी बस्ती आप जलाकर खाली की है..

हमने तुमने दरियाओं को भी धारों में बाँट दिया है.. 

सूरज के सौ टुकड़े करके इन तारों में बाँट दिया है..

हमने तुमने खूं से खूं की खूं करने की कोशिश की है.. 

और दबाकर अपनी चीखें हूँ करने की कोशिश की है.. 

हमने तुमने सरहद पर भी जाने कैसा खेल रचा है.. 

सूनी माँगों के साए में हम दोनों का देश बचा है..

Sunday, June 4, 2017

ऐ जिंदगी..

कोई ख्वाब है के ख़याल है..
तू जवाब है के सवाल है..
तुझे ढूंढने की थी ख्वाईशें..
तू जो मिल गई तो मलाल है..
ऐ जिंदगी.. ऐ जिंदगी...

कभी गुदगुदाती है फूल सी..
कभी चुभ गई तो तू खार है..
कभी चश्म-ए-तर भी हुए कभी..
तो तबस्सुमों की बहार है..
ऐ जिंदगी.. ऐ जिंदगी...

कभी बेवफा भी कहा तुझे..
कभी साथ भर इक सैर का..
जिसे हमने अपना समझ लिया..
तू वो प्यार है किसी गैर का..
ऐ जिंदगी.. ऐ जिंदगी...

(ख़ार: काँटा, चश्म-ए-तर: आसुओं से भरी आँखें, तबस्सुम:मुस्कुराहट)

Sunday, May 14, 2017

साहब..मैं कुत्ता हूँ..

साहब..मैं कुत्ता हूँ..
अपनी जात का आदमी सूँघ लेता हूँ..
फिर हम मंडलियों में भौंकते हैं..
जिसकी भौंक जितनी ऊँची..
उसकी जात का उतना रुतबा..
और हम यूँ ही भौंकते रहते हैं..
कभी किसी वजह से..
पर अक्सर बेवजह ही..

पर रात के मनहूस अंधेरों में..
कुछ चहलकदमी सी होती है..
ख़ामोशी के चेहरे पर..
खून के छींटे पड़ते हैं..
और तब जो चीखें उठती है,,
वो हर जात की होती है..

सुना है दूर उस जंगल में..
चंद भेड़िये रहते हैं..
और ये भी कि..
उनकी जात नहीं होती.......!!

Saturday, May 13, 2017

क्यूँ कहूँ?

क्यूँ कहूँ?
कहना जरुरी है?
तब तो नहीं था!

हाँ..तब जब..

एक चाँद पर नजरें गाड़े..
हम दोनों ने ख्वाब बुने थे..
और मिलाकर तारों को..
नाम लिखा था एक दूजे का..
पहली बारिश के पानी में..
बेसुध होकर भीगे थे हम..
नंगे पाँव चले थे रस्ते..
औ छालों का ध्यान नहीं था..

फिर क्यूँ बोलो अब कुछ कहना..
सूनी पलकें..भीगे नैना..
और सवालों के घेरे में..
आज अकेला जूझ रहा हूँ..
कमरे के कोने में बैठे..
दीवारों से बूझ रहा हूँ..

   

Tuesday, May 2, 2017

और चाहिए भी क्या..

(चित्र: गूगल साभार)

चाँद, रात, तेरी बात, और चाहिए भी क्या..
संग तेरे अब हयात, और चाहिए भी क्या..

फूल शर्मशार है, तितलियाँ बीमार हैं..
आज ऐसा हुस्न साथ, और चाहिए भी क्या..

इक नजर यूँ फेरकर, हाय मारा घेरकर..
हाय इतनी इल्तिफ़ात, और चाहिए भी क्या..

कह सके हम तो क्या, खुश हैं थोड़ा गम तो क्या..
इश्क़ की यही सिफ़ात, और चाहिए भी क्या..

कल मिरि मजार पर, बज़्म कुछ हज़ार पर..
बस हयात तेरे  बाद, और चाहिए भी क्या..
      

                                              -सोनित

(शब्दार्थ: हयात-life,existence; इल्तिफ़ात- kindness/attention; सिफ़ात-attribute, qualities; बज़्म-assembly)


Friday, April 7, 2017

रात होती है तो यूँ लगता है...

रात होती है तो यूँ लगता है..
लो बिछड़ने का वक़्त हो आया..
अब के जाकर मिले थे डाल पे और..
अब के उड़ने का वक़्त हो आया..
रात होती है तो यूँ लगता है.....


रात होती है तो यूँ लगता है..
जाने कैसे कटेगी अब ये बला..
वक़्त दिन भर का थका हारा सा..
कौन जाने के फिर चला न चला..
रात होती है तो यूँ लगता है.....


रात होती है तो यूँ लगता है..
कितनी रातों का और होना है..
कितने ख्वाबों को पंख लगने हैं..
कितना सांसों का शोर होना है..
रात होती है तो यूँ लगता है.....
                           
                           -सोनित 

Friday, March 17, 2017

सूखा

(चित्र: गूगल साभार)

धरा हुई पाषाण फूल क्या..
फसल पड़ी है सूखी..
कृषक हुआ हैरान सोचता..
कुदरत क्यूँकर रूठी..

खलियानों ने फटे होंठ से..
करी याचना नभ से..
बदरा देखे उमर हुई पर..
नजर न आए कब से..

कृषक डूबता चिंता में..
अब रोटी कैसे लाऊं..
बीवी बच्चे बिलख रहे..
क्या खाऊं और खिलाऊँ..

देते कर्ज सूदखोरों को..
जरा न आए खाँसी..
और अदा करते बच्चों का..
बाप चढ़ा कल फाँसी..

पूजा-पत्री दान-दक्षिणा..
आयाम सभी कर डाले..
शायद इन्द्र सुने, कुछ..
झोली में सबकी भर डाले..

नेता मंत्री आए, एक..
दूजे पर लांछन फेंके..
गरम तवे में राजनीति के..
अपनी रोटी सेंकें..

फिर कुछ इन्सानों ने आगे..
आकर हाथ बढ़ाया..
गिरती मानवता को थामा..
और सम्हाल उठाया..

देख द्रवित यह अम्बर की भी..
भर आयी फिर आँखें..
बरसे घट-घनघोर और..
मुस्काई सूखी साखें..

बारिश के आने ने..
उत्सव सा माहौल बनाया..
उर आनंद समाया भैया..
उर आनंद समाया..

                    -सोनित 

Sunday, February 19, 2017

इन नजरों से देखो प्रियवर..पार क्षितिज के एक मिलन है

इन नजरों से देखो प्रियवर
पार क्षितिज के एक मिलन है
धरा गगन का प्यार भरा इक
मनमोहक सा आलिंगन है..

पंछी गान करे सुर लय में
नभ की आँखें लाल हुई हैं
कुछ दुःख सूरज के जाने का
कुछ शशि का भी अभिनन्दन है

धूल उठी है बस्ती बस्ती
गैया लौट के आई है घर
बछड़े की आँखें चमकी है
ममता भी कैसा बंधन है

शमा जली है परवाने को
खबर पड़ी तो भाग आया है
ला न सका कुछ,खुद जल बैठा
हाय कहो कैसा वंदन है

जीवन भी क्या जीवन जैसे
रंगमंच का खेल कोई है
कभी इसी में हास छिपा है
कभी छिपा इसमें क्रंदन है..

-सोनित

Tuesday, January 31, 2017

यादें

शांत समुद्र..
दूर क्षितिज..
साँझ की वेला..
डूबता सूरज..
पंछी की चहक..
फूलों की महक..
बहके से कदम..
तुझ ओर सनम..
उठता है यूँ ही..
हर शाम यहाँ..
यादों का नशा..
यादों का धुआँ..
कुछ और नहीं..
कुछ और नहीं..
यादों के सिवा..
अब और यहाँ..
यादों में बसे..
लम्हों में फसे..
रहता हूँ पड़ा..
खामोश खड़ा..
आंसू की नमी..
आँखों में लिए..
पत्तों की कमी..
साखों में लिए..
पतझड़ का झड़ा..
एक पेड़ खड़ा..
रहता हूँ वहीँ..
खामोश खड़ा..

हर शाम किनारों पर तेरी..
यादों में डूबने जाता हूँ..

                              - सोनित

Saturday, January 28, 2017

आज तन पर प्राण भारी

आज तन पर प्राण भारी

मन हुआ स्वच्छन्द जैसे
तोड़ सारे बंध जैसे
देह की परिधि में सिमटे अब नहीं यह रूह सारी
आज तन पर प्राण भारी

लोक क्या परलोक क्या अब
घोर तम आलोक क्या अब
मैं समाहित सृष्टि में अब, और सृष्टि मुझमे सारी
आज तन पर प्राण भारी

वेश क्या परिवेश क्या अब
धर्म जाति शेष क्या अब
सत्य शिव सुन्दर इसी में सब विलय इस्से ही जारी
आज तन पर प्राण भारी

और तुम मैं भी भला क्या
किस लिए अब यह छलावा
एक ही तो आग से उठती है लपटें ढेर सारी
आज तन पर प्राण भारी

                                  -सोनित

Tuesday, January 17, 2017

कचरेवाली

इक कचरेवाली रोज दोपहर..
कचरे के ढेर पे आती है..
तहें टटोलती है उसकी..
जैसे गोताखोर कोई..
सागर की कोख टटोलता है..

उलटती है..पलटती है..
टूटे प्लास्टिक के टुकड़े को..
और रख लेती है थैली में..
जैसे कोई टूटे मन को..
इक संबल देकर कहता है..
ठुकराया जग ने दुःख मत कर..
ये हाथ थम ले..तर हो जा..
इक कचरेवाली रोज दोपहर..
कचरे के ढेर पे आती है..

जहाँ शहर गंदगी सूँघता..
वहाँ वही जिंदगी सूँघती..
कूड़े की संज्ञा में कितनी..
कमियाँ वह हर रोज ढूंढती..
हर कूड़े को नवजीवन का..
आशीष दिलाने आती है..
दूषित होती हुई धरा का..
दर्द सिलाने आती है..
इक कचरेवाली रोज दोपहर..
कचरे के ढेर पे आती है..

                                        -सोनित

Friday, January 6, 2017

चल अम्बर अम्बर हो लें..

चल अम्बर अम्बर हो लें..
धरती की छाती खोलें..
ख्वाबों के बीज निकालें..
इन उम्मीदों में बो लें..

सागर की सतही बोलो..
कब शांत रहा करती है..
हो नाव किनारे जब तक..
आक्रांत रहा करती है..
चल नाव उतारें इसमें..
इन लहरों के संग हो लें..
ख्वाबों के बीज निकालें..
इन उम्मीदों में बो लें..

पुरुषार्थ पराक्रम जैसा..
सरताज बना देता है..
पत्थर की पलटकर काया..
पुखराज बना देता है..
हो आज पराक्रम ऐसा..
तकदीर तराजू तौलें..
ख्वाबों के बीज निकालें..
इन उम्मीदों में बो लें..

धरती की तपती देही..
राहों में शूल सुशज्जित..
हो तेरी हठ के आगे..
सब लज्जित लज्जित लज्जित..
संचरित प्राण हो उसमें..
जो तेरी नब्ज टटोलें..
ख्वाबों के बीज निकालें..
इन उम्मीदों में बो लें..

                                         -सोनित