Saturday, May 28, 2016

"किताब का फूल"



अब घर कि हर एक चीज बदल दी मैने ..
सिक्कों को भी नोटों से बदल बैठा हूं..
पर उस फूल का क्या जो किसी ईक धूल पड़ी..
मैने किताब में बरसों से दबा रक्खा है..
जिसे दुनिया कि भीड़ से कभी तन्हा होकर..
मैं , किताब खोल देख लिया करता हूं..
वो उस फूल के मानिंन्द तो नहीं जिसको..
यूं ही कलियों को झटक तोड़ दिया करता हूं..
जो खुद ओंस की बूंदों से अनभिगा है पर..
जिसको देखे से ये पलकें भी भीग जाती है..
जिसकी खुसबू सिमट के रह गई  है पन्नों में..
फ़िर भी, लांघ के सागर के पार जाती है..
युं हि चौंका न करो बैठ के तन्हाई में..
जो अचानक से तुम्हें मेरी याद आती  है..
तुम्हि बतओ भला कैसे बदल दूं उसको..
वो जो ,मेरी खुशियों को इक सहारा है..
तेरे गुलशन में फ़ूल उस्से कई उम्दा हैं..
मेरि गर्दिश का मगर वो हि इक सितारा है..
माफ़ करना वो फूल मैं नही बदल सकता..
माफ़ करना..कि मैं नही बदल सकता...

-सोनित

Thursday, May 26, 2016

अब सिर्फ एक तागा टूटेगा..


आज उस पुराने  झूले को देखकर कुछ बातें याद गयी..
कई  बरस गुजरे जब वो नया था.. उसकी रस्सियाँ चमकदार थी.. उनमे आकर्षण था..
उन रस्सियों का हर तागा बिलकुल अलग दिखाई देता था..
उस 'हम' में भी अपने 'अहम' को सम्हाले हुए..
उनमे चिकनाहट थी..और उन्हें पकड़ने का सलीका था..
आज बहुत बरस गुजर चुके हैं उस बात को..
झूला भी पुराना हो गया है.. रस्सियाँ भी कमजोर मालूम पड़ती हैं..
अब रस्सियों में वो चमक है.. वो आकर्षण..
पर जब इन रस्सियों के तागों को देखता हूँ..
इन्हे अलग करना भी मुश्किल मालूम पड़ता है..
वक़्त के साथ एक दुसरे से रगड़ खाते जैसे ये एक हो गए हैं..
वक़्त की चक्की में पिस गया है अहम शायद..और बच गया है हम..
माना की वक़्त की मार से अब रस्सी कमजोर हो गयी है..
पर अब अनेक तागों वाली रस्सी नहीं..
अब सिर्फ एक तागा टूटेगा..
                                                               
                                                                 - सोनित