किस बात पे इतना गरजे हो
किस बात पे तुमको इतनी अकड़
अपने ही बने उस जाल में कल
फंस कर के मरी है एक मकड़
किस बात की इतनी ऐंठन है
किस बात पे यूँ इतराते हो
ये ढहते पर्वत देखो तुम
क्या शाश्वत गीत सुनाते हो
मेंढक ही उफनते नालों के
सागर को चुनौती देते हैं
मुफ़लिस हैं मुकद्दर से लेकिन
महफ़िल को पनौती कहते हैं
फिर हश्र वही होता है सुनो
पैरों के तले मर जाते हैं
बरसात के नाले ही अक्सर
फुहारों से भर जाते हैं
दुर्योधन जैसे मंदबुद्धि
बांधने हरि को जाते हैं
अर्जुन पहले झुक जाता है
हरि खुद बंध कर आ जाते हैं
तो नाप लो अपनी गहराई
अपना उथलापन जानोगे
गैरों की कमी निकालोगे
तो पछताकर ही मानोगे
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (15-06-2017) को
ReplyDelete"असुरक्षा और आतंक की ज़मीन" (चर्चा अंक-2645)
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (15-06-2017) को
ReplyDelete"असुरक्षा और आतंक की ज़मीन" (चर्चा अंक-2645)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
Very Thoughtful.
ReplyDeleteKeep it up.
Awesome!
ReplyDeletePoems of Vinay Prajapati
बहुत सुंदर रचना।
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