Friday, March 17, 2017

सूखा

(चित्र: गूगल साभार)

धरा हुई पाषाण फूल क्या..
फसल पड़ी है सूखी..
कृषक हुआ हैरान सोचता..
कुदरत क्यूँकर रूठी..

खलियानों ने फटे होंठ से..
करी याचना नभ से..
बदरा देखे उमर हुई पर..
नजर न आए कब से..

कृषक डूबता चिंता में..
अब रोटी कैसे लाऊं..
बीवी बच्चे बिलख रहे..
क्या खाऊं और खिलाऊँ..

देते कर्ज सूदखोरों को..
जरा न आए खाँसी..
और अदा करते बच्चों का..
बाप चढ़ा कल फाँसी..

पूजा-पत्री दान-दक्षिणा..
आयाम सभी कर डाले..
शायद इन्द्र सुने, कुछ..
झोली में सबकी भर डाले..

नेता मंत्री आए, एक..
दूजे पर लांछन फेंके..
गरम तवे में राजनीति के..
अपनी रोटी सेंकें..

फिर कुछ इन्सानों ने आगे..
आकर हाथ बढ़ाया..
गिरती मानवता को थामा..
और सम्हाल उठाया..

देख द्रवित यह अम्बर की भी..
भर आयी फिर आँखें..
बरसे घट-घनघोर और..
मुस्काई सूखी साखें..

बारिश के आने ने..
उत्सव सा माहौल बनाया..
उर आनंद समाया भैया..
उर आनंद समाया..

                    -सोनित