Sunday, July 31, 2016

और घर में बन्दर छोड़ चले..

तुम दिल क्यूँ मेरा तोड़ चले..
आँखों में समंदर छोड़ चले..
दिल को थी कहाँ उम्मीद-ए-वफ़ा..
यादों का बवंडर छोड़ चले..  
                                            😐
न पूछो कैसा किया सितम..
जो दिल से अपने निकाल दिया..
खुद को भी उठाकर ले जाते..
इस दिल के अंदर छोड़ चले..
                                              😛

ना जाग सकूं ना सोता हूँ..
हर वक़्त परीशाँ होता हूँ..
आए थे मदारी बनकर तुम..
और घर में बन्दर छोड़ चले..
                                           😀

                                                – सोनित

Thursday, July 28, 2016

वो खुदा को इस जहाँ में देखता है..

वो खुदा को इस जहाँ में देखता है
और फिर वो आसमाँ भी देखता है

जो मसीहा बन रहा था तब दिनों में
रात में अब क़त्ल होते देखता है

जुर्म को चुपचाप होते देख कहिए
है खुदा दुनिया में वो सब देखता है

झूठ के बाजार में सच बिक गया कल
और तू इन्साफ होता देखता है

बिक गए मोहरे सभी पैसों से लेकिन
खेलते उसको जमाना देखता है

और जो इन्साफ की खातिर लड़ा था
मंदिरों के पत्थरों को देखता है

                                       -सोनित

Friday, July 22, 2016

सूखे पत्ते चरमराते हैं..


कभी कभी मैं सोचता हूं..
किस शाख से गिरा हूं मैं..
क्युं इतना सरफ़िरा हूं मैं..

वो उंची, वो लम्बी या वो छोटी वाली..
पता नहीं किस पर लटकता था..
कोई बयार आकर कभी गुदगुदा देती..
तो कभी मैं उसे छेड़ दिया करता था..
क्या दिन थे वो..
मुझे याद है आज भी..
हम शाखों के लिए लड़ते थे..
पंछियों के लिए लड़ते थे..
मेरी शाख तुझसे ऊंची..
मेरी शाख पे ज्यादा पंछी..
और न जाने क्या क्या..
पर कोई  फ़र्क नहीं पड़ता.. जब देखता हूं..
कि हर शाख उसी तने को पकड़ कर खड़ी है..
जिसकी जड़ का सिराहना बना कर लेटा हूं आज..
वो छोटी शाख का पत्ता भी बगल मे लेटा है..
कोई फ़र्क नहीं पड़ता..
यही तो कहता हूं तुमसे..पर तुम पढने लिखने वाले..
लिखते हो किताबों में अक्सर..सूखे पत्ते चरमराते हैं..
   
                                                © सोनित 

Friday, July 15, 2016

रिश्तों की कमीज..

रिश्ते भी कमीज सरीखे होते हैं..
कुछ नए..कुछ पुराने..तो कुछ फटे हुए..
नए वाले अच्छे हैं
चमक है उनमें
पार्टी फंक्शन में पहनता हूँ
कुछ रौब भी जम जाता है
सम्हाल कर रखे हैं अलमारी में

पुराने वालों में अब वो चमक नहीं
घर में पहनने के काम आते हैं
गिले शिकवे होते हैं..पर इतनी दिक्क़त नहीं..
एक दो बटन टूट भी जाए तो चलता है
और इस्त्री की उन्हें आदत नहीं

और एक सन्दूक में कुछ फ़टे हुए भी रख्खे हैं..
हाँ सन्दूक में..सन्दूक भी पुराना है..
निकाल लेता हूँ साल में एकहाद बार..
अक्सर होली में क़्योंकि..
कितना भी रंग चड़ा लो इनपर
कोई फर्क नहीं पड़ता
बड़े बेरंग से हो गए हैं..
बस कुछ पल तन ढक लेता हूँ
जब तक वो और नहीं फटते..

पर..
कल दिल बैठ गया था मेरा..
जब तुम बोली कमीज बदलनी है..
नई चाहिए थी तुम्हे…
#सोनित

Wednesday, July 13, 2016

|| दहेजी दानव ||

बेटा अपना अफसर है..
दफ्तर में बैठा करता है..
जी बंगला गाड़ी सबकुछ है..
पैसे भी ऐठा करता है..

पर क्या है दरअसल ऐसा है..
पैसे भी खूब लगाए हैं..
हाँ जी.. अच्छा कॉलेज सहित..
कोचिंग भी खूब कराए हैं..
प्लस थोड़ा एक्स्ट्रा खर्चा है..
हम पूरा बिल ले आए हैं..

टोटल करना तो भाग्यवान..
देखो तो कितना बनता है..
जी लगभग पच्चीस होता है..
बाकी तो माँ की ममता है..

जी एक अकेला लड़का है..
उसका कुछ एक्स्ट्रा जोड़ूँ क्या..
बोलो ना कितना और गिरूँ..
सब मर्यादाएँ तोड़ूँ क्या..

हाँ.. हाँ सबकुछ जोड़ो उसमें..
जितना कुछ वार दिया हमने..
उसका भी चार्ज लगाओ तुम..
जो प्यार दुलार दिया हमने..

संकोच जरा क्यों करती हो..
भई ठोस बनाओ बिल थोड़ा..
बेटा भी तो जाने उसपर..
कितना उपकार किया हमने..

तो लगभग तीस हुआ लीजै..
थोड़ा डिस्काउंट लगाते हैं..
बेटी भी आपकी अच्छी है..
उन्तीस में बात बनाते हैं..

वधुपक्ष व्यथित सोचने लगा..
सन्दूकें तक खोजने लगा..
जो-जो मिलता है सब दे दो..
लड़की का ब्याह रचाना है..
गर रिश्ता हाथ से जाता है..
कल फिर ऐसा ही आना है..

था दारुण दृश्य बड़ा साहब..
आँखों में न अश्रु समाते थे..
जेवर, लहंगा, लंगोट बेच..
पाई-पाई को जमाते थे..

यह देख वधु के अंदर की..
फिर बेटी जागृत होती है..
वह पास बुलाकर के माँ को..
कुछ बातें उस्से कहती है..

है गर समाज की रीत यही..
तो रत्ती भर न विचार करो..
अब मुझपर दांव लगाकर तुम..
यह पैसों का व्यापार करो..

फिर देखो कैसे मैं अपनी..
माया का जाल चलाती हूँ..
दो चार महीने फिर इनको..
मैं यही दृश्य दिखलाती हूँ..

बेटा न बाप को पूछेगा..
माँ कहने पर भी सोचेगा..
देदो जितना भी सोना है..
सबकुछ मेरा ही होना है..

बस दहेज़ का दानव यूँ ही..
अपना काम बनाता है..
रिश्तों की नींव नहीं पड़ती..
यह पहले आग लगाता है..

रिश्ते रुपयों की नीवों पर..
मत रखो खोखली होती है..
कुट जाती जिसमें मानवता..
यह वही ओखली होती है..

बेटे को शिक्षित करो मगर..
विद्वान बनाना मत भूलो..
भिक्षा, भिक्षा ही होती है..
कहकर दहेज़ तुम मत फूलो..

कि इस दहेज़ के दानव का..
अब जमकर तुम संहार करो..
उद्धार करो.. उद्धार करो..
मानवता का उद्धार करो..

                                  -सोनित

Sunday, July 10, 2016

तुम्हारी याद आती है..

हवाएँ मुस्कुराकर जब घटाओं को बुलाती है..
शजर मदहोश होते हैं..तुम्हारी याद आती है..
इन्ही आँखों का पानी फिर उतर आता है होठों तक..
भिगोकर होंठ कहता है..तुम्हारी याद आती है..
किताबें खोलने को जी नहीं करता मिरा बिल्कुल..
दबा एक फूल मिलता है..तुम्हारी याद आती है..
मैं सन्नाटों में खो जाता हूँ ये हालत है अब मेरी..
कोई पूछे तो कहता हूँ..तुम्हारी याद आती है..
कभी तू देखने तो आ तेरे मुफलिस के हुजरे में..
अमीरी छाई रहती है..तुम्हारी याद आती है..
तेरी यादों की स्याही से कलम दिल की भिगोकर के..
मैं लिखता हूँ मुझे जब-जब तुम्हारी याद आती है..
                                                
                                                                     -सोनित

Thursday, July 7, 2016

ये वो कली है जो अब मुरझाने लगी है..

कश्ती समंदर को ठुकराने लगी है..
तुमसे भी बगावत की बू आने लगी है..

मत पूछिए क्या शहर में चर्चा है इन दिनों..
मुर्दों की शक्ल फिर से मुस्कुराने लगी है..

मैं सोचता हूँ इन चबूतरों पे बैठ कर..
गलियाँ बदल-बदल के क्यूँ वो जाने लगी है..

गुजरे हुए उस वक़्त की बेशर्मी मिली थी कल..
वो आज की हया से भी शर्माने लगी है..

किस चीज को कहूँ अब इंसान बताओ..
ये वो कली है जो अब मुरझाने लगी है..
                                           
                                                       -सोनित