Monday, June 12, 2017

ऐंठन

किस बात पे इतना गरजे हो

किस बात पे तुमको इतनी अकड़

अपने ही बने उस जाल में कल 

फंस कर के मरी है एक मकड़

किस बात की इतनी ऐंठन है

किस बात पे यूँ इतराते हो

ये ढहते पर्वत देखो तुम

क्या शाश्वत गीत सुनाते हो

मेंढक ही उफनते नालों के

सागर को चुनौती देते हैं

मुफ़लिस हैं मुकद्दर से लेकिन

महफ़िल को पनौती कहते हैं

फिर हश्र वही होता है सुनो

पैरों के तले मर जाते हैं

बरसात के नाले ही अक्सर

फुहारों से भर जाते हैं

दुर्योधन जैसे मंदबुद्धि

बांधने हरि को जाते हैं

अर्जुन पहले झुक जाता है

हरि खुद बंध कर आ जाते हैं

तो नाप लो अपनी गहराई

अपना उथलापन जानोगे

गैरों की कमी निकालोगे

तो पछताकर ही मानोगे

5 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (15-06-2017) को
    "असुरक्षा और आतंक की ज़मीन" (चर्चा अंक-2645)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (15-06-2017) को
    "असुरक्षा और आतंक की ज़मीन" (चर्चा अंक-2645)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  3. बहुत सुंदर रचना।

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