क्या दोष तुम्हें दूँ तुम ही कहो..
क्या दोष तुम्हें दूँ तुम ही कहो..
इस रिश्ते की बुनियाद हिलाने की शुरुआत तो मैंने की थी..
छुपकर तुमसे और किसी से पहले बात तो मैंने की थी..
एक भरोसा था शीशे सा जो चटकाकर तोड़ दिया था..
संदेहों के बीच तुझे जब तन्हा मैंने छोड़ दिया था..
अपना सूरज आप डुबोकर पहले रात तो मैंने की थी..
इस रिश्ते की बुनियाद हिलाने की शुरुआत तो मैंने की थी..
क्या दोष तुम्हें दूँ तुम ही कहो..
क्या दोष तुम्हें दूँ तुम ही कहो..
अब कर्मों की मार पड़ी है तो फिर तुमसे कैसा बैर..
अपनी बारी आन पड़ी है तो फिर तुमसे कैसा बैर..
कैसा बैर रखूं मैं बोलो कैसा अब विद्वेष रखूं..
हम दोनों में किसके दिल के टूटे अब अवशेष रखूं..
अपने ही उपवन में शोलों की बरसात तो मैंने की थी..
इस रिश्ते की बुनियाद हिलाने की शुरुआत तो मैंने की थी..
क्या दोष तुम्हें दूँ तुम ही कहो..
क्या दोष तुम्हें दूँ तुम ही कहो..
-सोनित
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (14-10-2016) के चर्चा मंच "रावण कभी नहीं मरता" {चर्चा अंक- 2495} पर भी होगी!
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'