Saturday, May 13, 2017

क्यूँ कहूँ?

क्यूँ कहूँ?
कहना जरुरी है?
तब तो नहीं था!

हाँ..तब जब..

एक चाँद पर नजरें गाड़े..
हम दोनों ने ख्वाब बुने थे..
और मिलाकर तारों को..
नाम लिखा था एक दूजे का..
पहली बारिश के पानी में..
बेसुध होकर भीगे थे हम..
नंगे पाँव चले थे रस्ते..
औ छालों का ध्यान नहीं था..

फिर क्यूँ बोलो अब कुछ कहना..
सूनी पलकें..भीगे नैना..
और सवालों के घेरे में..
आज अकेला जूझ रहा हूँ..
कमरे के कोने में बैठे..
दीवारों से बूझ रहा हूँ..

   

No comments:

Post a Comment