आज
उस पुराने झूले
को देखकर कुछ बातें याद आ गयी..
कई बरस
गुजरे जब वो नया
था.. उसकी रस्सियाँ चमकदार थी.. उनमे आकर्षण था..
उन
रस्सियों का हर तागा
बिलकुल अलग दिखाई देता था..
उस
'हम' में भी अपने 'अहम'
को सम्हाले हुए..
उनमे
चिकनाहट थी..और उन्हें पकड़ने
का सलीका था..
आज
बहुत बरस गुजर चुके हैं उस बात को..
झूला
भी पुराना हो गया है..
रस्सियाँ भी कमजोर मालूम
पड़ती हैं..
अब
रस्सियों में न वो चमक
है.. न वो आकर्षण..
पर
जब इन रस्सियों के
तागों को देखता हूँ..
इन्हे
अलग करना भी मुश्किल मालूम
पड़ता है..
वक़्त
के साथ एक दुसरे से
रगड़ खाते जैसे ये एक हो
गए हैं..
वक़्त
की चक्की में पिस गया है अहम शायद..और बच गया
है हम..
माना
की वक़्त की मार से
अब रस्सी कमजोर हो गयी है..
पर
अब अनेक तागों वाली रस्सी नहीं..
अब
सिर्फ एक तागा टूटेगा..
- सोनित
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (28-05-2016) को "आस्था को किसी प्रमाण की जरुरत नहीं होती" (चर्चा अंक-2356) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मेरी रचना को यह सार्वजनिक मंच प्रदान करने बहुत बहुत धन्यवाद शास्त्री जी.
Deleteबहुत खूब, वक्त की मार तो सब झेलते हैं।
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