साहब..मैं कुत्ता हूँ..
अपनी जात का आदमी सूँघ लेता हूँ..
फिर हम मंडलियों में भौंकते हैं..
जिसकी भौंक जितनी ऊँची..
उसकी जात का उतना रुतबा..
और हम यूँ ही भौंकते रहते हैं..
कभी किसी वजह से..
पर अक्सर बेवजह ही..
पर रात के मनहूस अंधेरों में..
कुछ चहलकदमी सी होती है..
ख़ामोशी के चेहरे पर..
खून के छींटे पड़ते हैं..
और तब जो चीखें उठती है,,
वो हर जात की होती है..
सुना है दूर उस जंगल में..
चंद भेड़िये रहते हैं..
और ये भी कि..
उनकी जात नहीं होती.......!!
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "अपहरण और फिरौती “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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Deletethank you blog buletin..
Deleteसुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeletethank you mam..
Deleteबहुत खूब...
ReplyDeletethank you mam..
Deleteसामान्य जन की यही कदर रह गई है !
ReplyDeletethank you.........
Deletethank you susheel ji..
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