किस बात पे इतना गरजे हो
किस बात पे तुमको इतनी अकड़
अपने ही बने उस जाल में कल
फंस कर के मरी है एक मकड़
किस बात की इतनी ऐंठन है
किस बात पे यूँ इतराते हो
ये ढहते पर्वत देखो तुम
क्या शाश्वत गीत सुनाते हो
मेंढक ही उफनते नालों के
सागर को चुनौती देते हैं
मुफ़लिस हैं मुकद्दर से लेकिन
महफ़िल को पनौती कहते हैं
फिर हश्र वही होता है सुनो
पैरों के तले मर जाते हैं
बरसात के नाले ही अक्सर
फुहारों से भर जाते हैं
दुर्योधन जैसे मंदबुद्धि
बांधने हरि को जाते हैं
अर्जुन पहले झुक जाता है
हरि खुद बंध कर आ जाते हैं
तो नाप लो अपनी गहराई
अपना उथलापन जानोगे
गैरों की कमी निकालोगे
तो पछताकर ही मानोगे