सूखे पत्ते चरमराते हैं..
कभी कभी मैं सोचता हूं..
किस शाख से गिरा हूं मैं..
क्युं इतना सरफ़िरा हूं मैं..
वो उंची, वो लम्बी या वो छोटी वाली..
पता नहीं किस पर लटकता था..
कोई बयार आकर कभी गुदगुदा देती..
तो कभी मैं उसे छेड़ दिया करता था..
क्या दिन थे वो..
मुझे याद है आज भी..
हम शाखों के लिए लड़ते थे..
पंछियों के लिए लड़ते थे..
मेरी शाख तुझसे ऊंची..
मेरी शाख पे ज्यादा पंछी..
और न जाने क्या क्या..
पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता.. जब देखता हूं..
कि हर शाख उसी तने को पकड़ कर खड़ी है..
जिसकी जड़ का सिराहना बना कर लेटा हूं आज..
वो छोटी शाख का पत्ता भी बगल मे लेटा है..
कोई फ़र्क नहीं पड़ता..
यही तो कहता हूं तुमसे..पर तुम पढने लिखने वाले..
लिखते हो किताबों में अक्सर..सूखे पत्ते चरमराते हैं..
© सोनित
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (24-07-2016) को "मौन हो जाता है अत्यंत आवश्यक" (चर्चा अंक-2413) पर भी होगी।
ReplyDelete--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteधन्यवाद सर..
Deleteअरे अभी कहाँ गिरेंगे, अभी तो हरे हो शाख की शोभा बढाओ।
ReplyDeleteहा हा.. आशा जी आखिर कब तक जीवन की सच्चाई से मुह फेरते रहें. धन्यवाद.
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